गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

भुखमरी को बढाते ये माँसाहारी और माँस उद्योग।

भुखमरी, कुपोषण के कई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कारण गिनाए जाते रहे हैं, लेकिन मांसाहार की चर्चा शायद ही कभी होती हो, जबकि वास्तविकता यह है कि दुनिया में बढ़ती भुखमरी-कुपोषण का एक मुख्य कारण मांसाहार का बढ़ता प्रचलन है। इसकी जड़ें आधुनिक औद्योगिक क्रांति और पाश्चात्य जीवन शैली के प्रसार में निहित हैं। दुनिया में यूरोप की सर्वोच्चता स्थापित होने के साथ ही मांसाहारी संस्कृति को बढ़ावा मिलना शुरू हुआ। आर्थिक विकास और औद्योगीकरण ने पिछले दो सौ साल में मांस केंद्रित आहार संस्कृति के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विकास व रहन-सहन के पश्चिमी माडल के मोह में फंसे विकासशील देशों ने भी इस आहार संस्कृति को अपनाया। इन देशों में जैसे-जैसे आर्थिक विकास हो रहा है वैसे-वैसे मांस व पशुपालन उद्योग फल-फूल रहा है।

गौरतलब है कि 1961 में विश्व का कुल मांस उत्पादन 7.1 करोड़ टन था, जो 2007 में बढ़कर 28.4 करोड़ टन हो गया। इस दौरान प्रति व्यक्ति खपत बढ़कर दोगुने से अधिक हो गई। विकासशील देशों में यह अधिक तेजी से बढ़ी और 20 वर्षो में ही प्रति व्यक्ति खपत दोगुनी से अधिक हो गई। मांस की खपत बढ़ाने में मशीनीकृत पशुपालन तंत्र की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

उदाहरण के लिए पहले चीन में पोर्क (सूअर का मांस) सिर्फ वहाँ का संभ्रांत वर्ग खाता था, लेकिन आज वहाँ का गरीब तबका भी अपने रोज के खाने में उसे शामिल करने लगा है। यही कारण है कि चीन द्वारा पोर्क के आयात में तेजी से बढ़ोतरी हुई है।

औद्योगिकीकरण व पश्चिमी सांस्कृतिक प्रभाव के कारण उन देशों में भी मांस प्रमुख आहार बनता जा रहा है जहाँ पहले कभी-कभार ही मांस खाया जाता था, जैसे भारत। भारत में भी नॉन वेज खाना स्टेटस सिंबल बनता जा रहा है। जिन राज्यों व वर्गों में संपन्नता व बाहरी संपर्क बढ़ा है, उनमें मांस के उपभोग में भी तेजी आई है। इस कारण हमारे ट्रैडिशनल फूड की बड़ी उपेक्षा हुई है। इस क्रम में परंपरागत आहारों की घोर उपेक्षा हुई। पहले गाँवों में कुपोषण दूर करने में दलहनों, तिलहनों, गुड़ की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी, लेकिन खेती की आधुनिक पद्धतियों व खानपान में इन तीनों की उपेक्षा हुई। इसकी क्षतिपूर्ति के लिए विटामिन की गोली दी जाने लगी।

पहले प्राकृतिक संसाधनों पर समाज का नियंत्रण होने से उसमें सभी की भागीदारी होती थी, लेकिन उन संसाधनों पर बड़ी कंपनियों, भूस्वामियों के नियंत्रण के कारण एक बड़ी जनसंख्या इनसे वंचित हुई। शीतल जल के प्याऊ की जगह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बोतलबंद पानी ने ले ली और वह दूध से भी महंगा बिक रहा है। फार्म एनिमल रिफार्म मूवमेंट के अनुसार अमेरिकी उपभोक्ता मांस की भूख के कारण न केवल पर्यावरण को हानि पहुँँचा रहे हैं, अपितु अमेरिकी आहार आदतें दुनिया भर में फैल रही हैं। विज्ञान व तकनीक का क्षेत्र हो या फैशन, यह धारणा दुनिया भर में फैल गई है कि जो अमेरिका कर रहा है वह ठीक है। मांस की खपत बढ़ाने में मशीनीकृत पशुपालन तंत्र की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले गाँव-जंगल-खेत आधारित पशुपालन होता था। इस पद्धति में खेती, मनुष्य के भोजन और पशुआहार में कोई टकराव नहीं था। दूसरी ओर आधुनिक पशुपालन में छोटी सी जगह में हजारों पशुओं को पाला जाता है। उन्हें सीधे अनाज, तिलहन और अन्य पशुओं का मांस ठूंस-ठूंस कर खिलाया जाता है ताकि जल्द से जल्द ज्यादा से ज्यादा मांस हासिल किया जा सके। इस तंत्र में बड़े पैमाने पर मांस का उत्पादन होता है, जिससे वह सस्ता पड़ता है और अमीर-गरीब सभी के लिए सुलभ होता है।

इस आधुनिक पशुपालन ने प्रकृति व मनुष्य से भारी कीमत वसूल की। इस पशुपालन में पशु आहार तैयार करने के लिए रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, पानी का अत्यधिक उपयोग किया जाता है। सघन आवास, रसायनों और हार्मोन युक्त पशु आहार व दवाइयां देने से पर्यावरण और हमारे स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ा है। पशुपालन के इन कृत्रिम तरीकों ने ही मैड काऊ, बर्ड फ्लू व स्वाइन फ्लू जैसी नई महामारियाँ पैदा की हैं।

मक्का और सोयाबीन की खेती के तीव्र प्रसार में आधुनिक पशुपालन की मुख्य भूमिका रही है। आज दुनिया में पैदा होने वाला एक-तिहाई अनाज जानवरों को खिलाया जा रहा है, जबकि भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। अमेरिका में दो-तिहाई अनाज व सोयाबीन पशुओं को खिला दिया जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार दुनिया के मांस खपत में मात्र 10 प्रतिशत की कटौती प्रतिदिन भुखमरी से मरने वाले 18 हजार बच्चों व 6 हजार वयस्कों का जीवन बचा सकती है

मांस उत्पादन में खाद्य पदार्थों की बड़े पैमाने पर बर्बादी भी होती है। एक किलो मांस पैदा करने में 7 किलो अनाज या सोयाबीन की जरूरत पड़ती है। अनाज के मांस में बदलने की प्रक्रिया में 90 प्रतिशत प्रोटीन, 99 प्रतिशत कार्बोहाईड्रेट और 100 प्रतिशत रेशा नष्ट हो जाता है। एक किलो आलू पैदा करने में जहाँ मात्र 500 लीटर पानी की खपत होती है, वहीं इतने ही मांस के लिए 10,000 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। स्पष्ट है कि आधुनिक औद्योगिक पशुपालन के तरीके से मांसाहारी भोजन तैयार करने के लिए काफी जमीन और संसाधनों की जरूरत होती है। इस समय दुनिया की दो-तिहाई भूमि चरागाह व पशु आहार तैयार करने में लगा दी गई है। जैसे-जैसे मांस की मांग बढ़ेगी, वैसे-वैसे पशु आहार की खेती बढ़ती जाएगी, और इससे ग्रीनहाउस गैसों में भी तेजी से बढ़ोतरी होगी।
(रमेश कुमार दुबे के लेख का अंश)

22 टिप्‍पणियां:

  1. इस विषय की यह बिल्कुल नई जानकारी है मेरे लिए तो......आलेख पढ़कर पूरी बार समझ सकी हूँ और सहमत भी हूँ.... आभार

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  2. मांसाहार के दूरगामी दुष्परिणाम दर्शाती सुन्दर जानकारीयां देती पोस्ट के लिये बहुत बहुत आभार.मांसाहार चूँकि अप्राकृतिक है तो दुष्परिणाम तो होने ही हैं.

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  3. बहुत ज्ञान वर्धक पोस्ट इस ब्लॉग पर मिले ज्ञान से शाकाहार के पक्ष में दलील देने में मजबूती आ जाती है .......... आभार !

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  4. सहमत हूँ. अगर इन तथ्यों पर विचार न भी किया जाए तब भी मैं ये कहना चाहूँगा कि मांसाहार हर हाल में ग़लत है, त्याज्य है, घोर निंदा करने लायक़ है. स्वास्थ्य लाभ या स्वाद की दृष्टि से किया गया मांसाहार घृणित, स्वार्थी और क्रूर होने का परिचायक है. 'माँसाहारी व्यक्तियों' की पृवत्ति का अनुमान करके उन पर विश्वाष करना असंभव है. मतलब ये है की जो व्यक्ति अपने स्वाद, धार्मिक परंपरा या तथाकथित स्वास्थ्य संबधी लाभ के लिए चलते फिरते जानवर को मारकर खा जाए, तो वो इंसान को कैसे बख्स देगा.

    इस लेख के लिए लेखक और सुज्ञ जी को धन्यवाद.

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  5. बहुत अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर मांसाहार के विरुद्ध लेख पढ़ कर आज के समय में बहुत से लोग जाने अनजाने मांश खाने लगे हे जैसे मेक्डोनाल्ड के प्रोडक्ट में अब मांश का भी प्रयोग होने लगा हे बहुत से लोग खाश कर युवा वर्ग और किशोर अवस्था के बचे इसे ज्यादा खाने लगे हे. और तो और विदेशो से आने वाली बहुत सी चाकलेटो में भी मांश का प्रयोग होता हे. और बच्चे जाने अनजाने इसे खाने लगे हे. इस विषय में भी लिखे धन्यवाद

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  6. अच्छी जानकारी दी है आपने ! हार्दिक आभार !

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  7. अच्छी जानकारी दी है आपने| धन्यवाद|

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  8. शाकाहार के पक्ष में बढिया जानकारी!आभार !
    विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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  9. आंखें खोलने वाला आलेख, आभार!

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  10. नवीन जानकारी मिली , आभार आपका !

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  11. कूडा करकट खांय हम, कुक्कुट यों बतरायं ।
    क्या मजबूरी मनुज की, जो वे हमको खांय॥

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  12. सचमुच मांस खाना अप्राकृतिक है --अनेक बिमारीयो की जड़ ! भगवान् ने जीवन दिया हे हर प्राणियों को | हम कौन होते है इनकी हत्या करने वाले ? भारत को सुधर जाना चाहिए --विदेशी सभ्यता की नाजायज नकल पर रोक लगाना जरूरी है --और इसके लिए भी कोई बिल पेश करना चाहिए !

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  13. बहुत सही जानकारी |
    ज्ञानवर्धक पोस्ट |

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  14. आपकी सभी पोस्टों से सहमत हूँ .....................यूँ ही इस निरामिष के अभियान को आगे बढाते रहना ................

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  15. This blog must be translated in english, so people from other country (specialy from US) can read/understand it.

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  16. नवीन जानकारी मिली , आभार आपका !

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  17. अच्छा ब्लॉग है, सामग्री भी पठनीय है.

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  18. दुनिया में बढ़ती खाद्य की कमी के लिए मांस उत्पादन सीधे सीधे जवाबदार है। भुखमरी-कुपोषण का प्रमुख कारण माँसाहार का बढ़ता प्रचलन है। माँस पाने के लिए जानवरों का पालन पोषण देखरेख और माँस का प्रसंस्करण करना एक लम्बी व जटिल प्रक्रिया है। पृथ्वी-पर्यावरण को नुकसान पहुचाने में इस उद्योग का बडा भारी और प्रमुख हिस्सा है। आधुनिक औद्योगिक पशुपालन के तरीके से भोजन तैयार करने के लिए प्राप्ति से भी अनेकगुना जमीन और संसाधनों का अपव्यय होता है। इस समय दुनिया की दो-तिहाई भूमि चरागाह व पशु आहार तैयार करने में झोक दी गई है। यदि माँस उत्पादन में व्यर्थ हो रहे अनाज, जल और भूमि आदि संसाधनो का सदुपयोग किया जाय तो इस एक ही पृथ्वी पर शाकाहार की बहुतायत हो जाएगी।

    एक अनुमान के मुताबिक एक एकड़ भूमि पर जहाँ 8000 कि ग्रा हरा मटर, 24000 कि ग्रा गाजर और 32000 कि ग्रा टमाटर पैदा किए जा सकतें है वहीं उतनी ही जमीन का उपभोग करके, मात्र 200कि ग्रा. माँस ही पैदा किया जा सकता है।

    मांसाहार में वनस्पति आदि प्राकृतिक संसाधनो का अनेक गुना अधिक उपभोग होता है। एक तो हम सीधे शाकाहार से ही आवश्यक उर्ज़ा प्राप्त करते है, वहीं मांस प्राप्त करने के लिए लगभग 16 गुना अनाज पशु को खिला देना पडता है और तब जाकर 1 किलो माँस का प्रबंध हो पाता है।

    जबरदस्ती फीड कर पशु का वज़न तो बढ़ा दिया जाता है पर अधिकांश मात्रा में पशुअंग व्यर्थ किए जाते है नतीज़ा उर्जाचक्र में उर्जा का भारी अपव्यय। अनाज के मांस में बदलने की प्रक्रिया में 90 प्रतिशत प्रोटीन, 99 प्रतिशत कार्बोहाईड्रेट और 100 प्रतिशत रेशा नष्ट हो जाता है। एक किलो आलू पैदा करने में जहां मात्र 500 लीटर पानी की खपत होती है, वहीं इतने ही माँस के लिए 10,000 लीटर पानी व्यय होता है।

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