गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल!! (पूर्वार्ध)

हिंसा की तुलना: माँसाहार बनाम शाकाहार

माँसाहार के कुछ समर्थक, माँसाहार को जबरन योग्य साबित करने के लिये पूछते हैं कि जब वनस्पति में भी जीवन है तो फिर पशु हत्या ही हिंसा क्यों मानी जाती है। ऐसे मांसाहार प्रवर्तक/समर्थक यह दावा करते हैं कि शाक, सब्जी या अन्य शाकाहारी पदार्थों के उत्पादन, तोड़ने तथा सेवन करने पर भी जीव की हिंसा होती है। वे पूछते हैं कि ऐसे में पशु या पक्षियों को मारकर खाने को ही हिंसा व क्रूरता क्यों माना जाता है?

यह कुतर्क प्रस्तुत करते हुए ये तथाकथित विद्वान कभी भी अपना पक्ष स्पष्ट नहीं करते कि शाकाहार और मांसाहार दोनों में हिंसा है तो क्या वे इन दोनो ही का त्याग करने वाले हैं अथवा यह कहना चाहते है कि जब शाकाहारी माँसाहारी दोनो पदार्थों में हिंसा है तो इन दोनों में से जो अधिक क्रूर व वीभत्स हत्या हो, जहां स्पष्ट अत्याचार व आर्तनाद दृष्टिगोचर होता हो, समझते बूझते हुए भी वही हत्या और हिंसा अपना लेनी चाहिए?

क्रूर सच्चाई तो यह है कि माँसाहार समर्थकों का यह तर्क, सूक्ष्म और वनस्पति जीवन के प्रति करुणा से नहीं उपजा है। बल्कि यह क्रूरतम पशु हिंसा को सामान्य बताकर महिमामण्डित करने की दुर्भावना से उपजा है।

शाकाहार की तुलना मांसाहार से करना और दोनों को समान ठहराना न केवल अवैज्ञानिक और असत्य है बल्कि अनुचित व अविवेक पूर्ण कृत्य है। एक ओर तो साक्षात जीता जागता प्राणी , अपनी जान बचाने के लिए भागता, संघर्ष करता, बेबसी महसुस करता प्राणी , सहायता के लिए याचना भरी निगाहों से आपकी ओर ताकता आतंकित प्राणी , चोट व घात पर दर्द और पीड़ा से आर्तनाद कर तड़पता, छटपटाता प्राणी और उसे मरते देख रोते –बिलखते अन्य प्राणी? तब भी यदि करूणा नहीं जगती तो निश्चित ही यह मानव मन के निष्ठुर व क्रूर भावों की पराकाष्टा होनी चाहिए।

प्रकृति में दो तरह के जीव है। त्रस और स्थावर। मनुष्य पशु पक्षी मछली आदि स्थूल त्रस जीव है, वे ठंड-गर्मी, भय-त्रास आदि से बचाव के लिए हलन-चलन में सक्षम है। जबकि पेड पौधे बादर स्थावर है उनमें ठंड-गर्मी, भय-त्रास से बचने की चेतना और स्फुरण ही पैदा नहीं होता।

भारतीय वनस्पतिशास्त्री जगदीश चन्द्र बसु के प्रयोगों से पश्चिमी सोच में पहली बार यह प्रस्थापना हुई कि वनस्पति में जीवन है। हालांकि भारतीय मनीषा में यह तथ्य स्थापित था कि वनस्पति में भी जीवन है। परंतु यह जीवन प्राणी-जीवन से सर्वथा भिन्न है। वनस्पति में वह जीवन इस सीमित अर्थ में हैं कि पादप बढते हैं, श्वसन करते हैं, भोजन बनाते हैं और अपने जैसी कृतियों को जन्म देते हैं। स्वयं जगदीश चन्द्र बसु कहते है, - पशु-पक्षी हत्या के समय मरणांतक पीड़ा महसुस करते है, और बेहद आतंक ग्रस्त होते है। जबकि पेड़-पौधे इस प्रकार आतंक महसूस नहीं करते, क्योंकि उनमें सम्वेदी तंत्रिका-तंत्र का अभाव है।

पौधों में प्राणियों जैसी सम्वेदना का प्रश्न ही नहीं उठता। उनमें सम्वेदी तंत्रिकातंत्र पूर्णतः अनुपस्थित है। न उनमें मस्तिष्क होता है और न ही प्राणियों जैसी सम्वेदी-तंत्र संरचना। सम्वेदना तंत्र के अभाव में शाकाहार और मांसाहार के लिए पौधों और पशुओं के मध्य समान हिंसा की कल्पना पूरी तरह से असंगत है। जैसे एक समान दिखने वाले कांच और हीरे के मूल्य में अंतर होता है और वह अंतर उनकी गुणवत्ता के आधार पर होता है। उसी प्रकार एक बकरे के जीव और एक फल के जीव के जीवन-मूल्य में भी भारी अंतर है। पशुपक्षी में चेतना जागृत होती है उन्हें मरने से भय (अभिनिवेश) भी लगता है। क्षुद्र से क्षुद्र कीट भी मृत्यु या शरीरोच्छेद से बचना चाहता है। पशु पक्षी आदि में पाँच इन्द्रिय होती है वह जीव उन पाँचो इन्द्रियों से सुख अथवा दुख अनुभव करता है, सहता है, भोगता है। कान, आंख, नाक, जिव्हा और त्वचा तो उन इन्द्रियों के उपकरण है इन इन्द्रिय अवयवों के त्रृटिपूर्ण या निष्क्रिय होने पर भी पाँच इन्द्रिय जीव, प्राणघात और मृत्युवेदना, सभी पाँचों इन्द्रिय सम्वेदको से अनुभव करता है। यही वह संरचना है जिसके आधार पर प्राणियों का सम्वेदी तंत्रिका तंत्र काम करता है। जाहिर है, जीव जितना अधिक इन्द्रियसमर्थ होगा, उसकी मरणांतक वेदना और पीड़ा उतनी ही दारुण होगी। इसीलिए पंचेन्द्रिय (पशु-पक्षी आदि) का प्राण-घात, करूण प्रसंग बन उठता है। क्रूर भावों के निस्तार के लिए, करूणा यहां प्रासंगिक है। विवेक यहां अहिंसक या अल्पहिंसक विकल्प का आग्रह करता है।

आहार का चुनाव करते समय हमें अपने विवेक को वैज्ञानिक अभिगम देना होगा। वैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि सृष्टि में जीवन विकास क्रम, सूक्ष्म एक-कोशिकीय (एकेन्द्रिय) जीव से प्रारंभ होकर पंचेंद्रिय तक पहुँचा है। पशु-पक्षी आदि पूर्ण विकसित प्राणी है। यदि हमारा जीवन, न्यूनतम हिंसा से चल सकता है तो हमें कोई अधिकार नहीं बनता, हम विकसित प्राणी की अनावश्यक हिंसा करें। उपभोग संयम का अनुशासन भी नितांत ही आवश्यक है। प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग, दुष्कृत्य के समान है। विकल्प उपलब्ध होते हुए भी जीव विकास क्रम को खण्डित/बाधित करना, प्रकृति के साथ जघन्य अपराध है।
जारी………

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* हिंसा का अल्पीकरण करने का संघर्ष भी अपने आप में अहिंसा है।
* विवेकी सम्वेदनाएं और संयम ही अहिंसा संस्कृति है

17 टिप्‍पणियां:

  1. सुज्ञ जी,
    शाकाहार में हिंसा का छिद्रांवेषण करने वालों की नीयत के साथ-साथ शाकाहार और मांसाहार के विषय पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ अंतर स्पष्ट करने के लिये आपका हार्दिक आभार। सब जानते हैं कि पशु-पक्षी आघात और हत्या के समय मरणांतक पीड़ा महसुस करते है, और बेहद भयभीत होते है जबकि पेड़-पौधे ऐसी सम्वेदना से मुक्त हैं। पौधों को संस्कृत में शस्य इसी कारण कहा गया है।

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  2. आप कितना भी समझा लो ये मांसाहारी+अन्डाहारी प्राणी नहीं समझने वाले है। देख लेना उनमें से दो-चार यहाँ आकर मांसभक्षण को उचित ठहराने के लिये अपने-अपने कुटिल तर्क देना शुरु कर ही देंगे।
    किसी को कोई नहीं बिगाडता है सबको मजा बिगाडता है।

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  3. bahut ही बढ़िया
    क्या करे ये मंशा हरी कोई तर्क नही मिलता तो कुछ न कुछ तो लिखना ही है
    सच्चाई यही है कि शाकाहार में प्रोयोग में लाने वाली सब्जिय या फल पहले ही सूख (मर ) चुके होते है
    और फल पेड़ो के ताग्य्ने की चीज होती है

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  4. अगला लेख पढ्ने के प्रतीक्षा मै ।

    नया हिंदी ब्लॉग
    हिन्दी दुनिया ब्लॉग

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  5. पेड़ की शाखा काटने पर नई शाखा खुद-बी-खुद उग आती है लेकिन हाथ पैर कटने पर दोबारा नहीं निकलता.

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  6. क्रूर सच्चाई तो यह है कि माँसाहार समर्थकों का यह तर्क, सूक्ष्म और वनस्पति जीवन के प्रति करुणा से नहीं उपजा है। बल्कि यह क्रूरतम पशु हिंसा को सामान्य बताकर महिमामण्डित करने की दुर्भावना से उपजा है।

    सहमत ... बेहद महत्वपूर्ण .....विचारणीय लेख

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  7. बेहतरीन तार्किक और विज्ञान सम्मत विश्लेषण .सामिष भोजन के नतीजे कैंसर समूह ,ह्रदय रोग के जीवन शैली रोग बनने के रूप में आज दुनिया भर के सामने हैं .

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  8. अगर एक विद्वान् तर्क करेगा तो, दोनों पक्षों पर समान तर्क दिए जा सकते है !
    पर यह तो समाधान नहीं है ! भोजन अपनी अपनी संवेदनशीलता पर निर्भर करता है !
    ऐसा मेरा मानना है !
    आभार ब्लॉग पर आने का !
    नववर्ष की आपको भी हार्दिक शुभकामनायें !

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  9. @सुमन जी,

    निरामिष का प्रयास तर्क या टकराव का नहीं, बल्कि करुणामय जीवन, विवेक के प्रयोग और बहुजन सुखाय, बहुजन हिताय की दृष्टि के प्रसार का है।

    @सभी पाठकों और संरक्षकों को नववर्ष की मंगलकामनायें!

    सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः|
    सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्

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  10. Nice post .

    ‘आप जिन लोगों से प्यार नहीं करते, उनके साथ हंसिए-बोलिए, प्यार पैदा हो जाएगा।‘
    http://shekhchillykabaap.blogspot.com/

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  11. इंसान पर निर्भर है किस खोज से क्या सीख लेता है

    मुझे बसु की खोजें पढने के बाद अपनी संस्कृति पर गर्व होता है

    इस लिंक पर जाएँ

    http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/705-2011-09-08-06-06-38

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  12. बहुत सटीक लिखा इस विषय पर .
    नए साल की हार्दिक शुभकामनायें.

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  13. सुज्ञ जी! बहुत ढूँढते हुए आपको यहाँ पाया है और यहाँ का होकर रह गया... एक मांसाहारी परिवार में जन्म लेने के बाद भी सारे मांसाहारियों के मध्य एकमात्र शाकाहारी होना बड़ा आश्चर्य है.. आपकी एक एक बात से सहमत.. दलीलें सिर्फ दलील देने के लिए दी जाएँ तो वह कुतर्क बन जाती हैं और ऐसी ही है दलील कि शाक का भोजन भी निरामिष नहीं है!!
    आभार!

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  14. सार्थक एवं उच्च कोटि के इस आलेख के लिए आपका आभार!

    निरामिष की पूरी टीम और पाठकों को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं!

    मांसाहारियों से निवेदन है कि नववर्ष के अवसर पर वे जैसे अपने प्रिय और निकट संबधियों के लिए सलामती और उनके सफ़ल जीवन की कामना कर रहे हैं वैसे ही निर्दोष प्राणियों के लिए आप दुआ भले ही ना करें लेकिन उन पर दया भाव रखे! उनके जीवन के अधिकार की भी रक्षा करें. कोई सदा तो यहाँ रहना नहीं है तो फ़िर थोड़ी देर के स्वाद की खातिर उनकी निर्दोष प्राणियों की हत्या क्यों जाए!

    क्यों न नववर्ष के अवसर पर 'जिओ और जीने दो' के सिद्धांत का अनुसरण करें !

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  15. पर्यावरण पारिश्थितिकी के भी अनुकूल है शाकाहार .नव वर्ष मुबारक .

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  16. कई नए तथ्यों से अवगत हुए ...
    नव वर्ष की ढेरों शुभकामनायें !

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