सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

अमृतपान - एक कविता

(अनुराग शर्मा)

हमारे पूर्वजों के चलाये
हजारों पर्व और त्यौहार
पूरे नहीं पड़ते
तेजस्वी, दाता, द्युतिवान
उत्सवप्रिय देवों को
जभी तो वे नाचते गाते
गुनगुनाते
शामिल होते हैं
लोसार, ओली व खमोरो ही नहीं
हैलोवीन और क्रिसमस में भी
लेकिन मुझे यकीन है कि
बकरीद हो या दसाइन
बेज़ुबान प्राणियों की
कुर्बानी, बलि या हत्या में
उनकी उपस्थिति नहीं
स्वीकृति भी नहीं होती
मृतभोजी नहीं हो सकते वे
जो अमृतपान पर जीते हैं